ग़ज़ल शेरों से बनती है।
ग़ज़ल की खास बात यह है कि उसका प्रत्येक शेर अपने आप में एक सम्पूर्ण कविता होता है और उसका संबंध ग़ज़ल में आने वाले अगले,पिछले अथवा अन्य शेरों से हो ,यह ज़रुरी नहीं। इसका अर्थ यह हुआ कि किसी ग़ज़ल में अगर २५ शेर हों तो यह कहना गलत न होगा कि उसमें २५ स्वतंत्र कवितायें हैं।
शे’र :
जब हम शे’र कहते हैं तो उसकी दो लाइनें होती हैं पहली लाइन जो कि स्वतंत्र होती है और जिसमें कोई भी तुक मिलाने की बाध्यता नहीं होती है । इस पहली लाइन को कहा जाता है मिसरा उला। उसके बाद आती है दूसरी लाइन जो कि बहुत ही महत्वपूर्ण होती है क्योंकि इसमें ही आपकी प्रतिभा का प्रदर्शन होता है । इसमें तुक का मिलान किया जाता है और इस दूसरी लाइन को कहा जाता है मिसरा सानी । अर्थात पूरी की पूरी बात कहने के लिये आपको दो लाइनें दी गईं हैं पहली लाइन में आपको आपनी बात को आधा कहना है ( मिसरा उला ) जैसे सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जाएगा इसमें शाइर ने आधी बात कह दी है अब इस आधी को पूरी अगली पंक्ति में करना ज़रूरी है(मिसरा सानी) इतना मत चाहो उसे वो बेवफा हो जाएगा । मतलब मिसरा सानी वो जिसमें आपको अपनी पहली पंक्ति की अधूरी बात को हर हालत में पूरा करना ही है । गीत में क्या होता है कि अगर एक छंद में कोई बात पूरी न हो पाय तो अगले छंद में ले लो पर यहां पर नहीं होता यहां तो पूरी बात को कहने के लिये दो ही लाइनें हैं अर्थात गागर में सागर भरना मतलब शे‘र कहना । मिसरा सानी का महत्व अधिक इसलिये है क्योंकि आपको यहां पर बात को पूरा करना है और साथ में तुक ( काफिया ) भी मिलाना है ( काफिया आगे देखें उसके बारे में )। मतलब एक पूर्व निर्धारित अंत के साथ बात को खत्म करना मतलब मिसरा सानी ।
क़ाफिया :
क़ाफिया ग़ज़ल की जान होता है । दरअसल में जिस अक्षर या शब्द या मात्रा को आप तुक मिलाने के लिये रखते हैं वो होता है क़ाफिया । जैसे ग़ालिब की ग़ज़ल है ‘ दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है, आखिर इस दर्द की दवा क्या है ‘ अब यहां पर आप देखेंगें कि ‘क्या है‘ स्थिर है और पूरी ग़ज़ल में स्थिर ही रहेगा वहीं दवा, हुआ जैसे शब्द परिवर्तन में आ रहे हैं । ये क़ाफिया है ‘हमको उनसे वफ़ा की है उमीद जो नहीं जानते वफ़ा क्या है ‘ वफा क़ाफिया है ये हर शे’र में बदल जाना चाहिये । ऐसा नहीं है कि एक बार लगाए गए क़ाफिये को फिर से दोहरा नहीं सकते पर वैसा करने में आपके शब्द कोश की ग़रीबी का पता चलता है मगर करने वाले करते हैं ‘दिल के अरमां आंसुओं में बह गए हम वफा कर के भी तन्हा रह गए, ख़ुद को भी हमने मिटा डाला मग़र फ़ासले जो दरमियां थे रह गए‘ इसमें रह क़ाफिया फिर आया है क़ायदे में ऐसा नहीं करना चाहिये हर शे’र में नया क़ाफि़या होना चाहिये ताकि दुनिया को पता चले कि आपका शब्दकोश कितना समृद्ध है और ग़ज़ल में सुनने वाले बस ये ही तो प्रतीक्षा करते हैं कि अगले शे’र में क्या क़ाफिया आने वाला है ।
रदीफ :
एक और चीज़ है जो स्थिर है ग़ालिब के शे’र में दवा क्या है, हुआ क्या है में क्या है स्थिर है ये ‘क्या है‘ पूरी ग़ज़ल में स्थिर रहना है इसको रदीफ़ कहते हैं इसको आप चाह कर भी नहीं बदल सकते । अर्थात क़ाफिया वो जिसको हर शे’र में बदलना है मगर उच्चारण समान होना चाहिये औररदीफ़ वो जिसको स्थिर ही रहना है कहीं बदलाव नहीं होना है । रदीफ़ क़ाफिये के बाद ही होता है । जैसे”मुहब्बत की झूठी कहानी पे रोए, बड़ी चोट खाई जवानी पे रोए‘ यहां पर ‘ पे रोए‘ रदीफ़ है पूरी ग़ज़ल में ये ही चलना है कहानी और जवानी क़ाफिया है जिसका निर्वाहन पूरी ग़ज़ल में पे रोए के साथ होगा मेहरबानी (काफिया) पे रोए (रदीफ), जिंदगानी (काफिया) पे रोए (रदीफ) , आदि आदि । तो आज का सबक क़ाफिया हर शे’र में बदलेगा पर उसका उच्चारण वही रहेगा जो मतले में है और रदीफ़ पूरी ग़ज़ल में वैसा का वैसा ही चलेगा कोई बदलाव नहीं ।
मतला :
ग़ज़ल के पहले शे’र के दोनों मिसरों में क़ाफिया होता है इस शे’र को कहा जाता है ग़ज़ल कामतला शाइर यहीं से शुरूआत करता है ग़ज़ल का मतला अर्ज़ है । क़ायदे में तो मतला एक ही होगा किंतु यदि आगे का कोई शे’र भी ऐसा आ रहा है जिसमें दोनों मिसरों में काफिया है तो उसको हुस्ने मतला कहा जाता है वैसे मतला एक ही होता है पर बाज शाइर एक से ज़्यादा भी मतले रखते हैं । ग़ज़ल का पहला शे’र जो कुछ भी था उसकी ही तुक आगे के शे’रों के मिसरा सानी में मिलानी है ।
मकता :
वो शे’र जो ग़ज़ल का आखिरी शे’र होता है और अधिकांशत: उसमें शायर अपने नाम या तखल्लुस ( उपनाम) का उपयोग करता है । जैसे हुई मुद्दत के ग़ालिब मर गया पर याद आता है, वो हर एक बात पे कहना के यूं होता तो क्या होता अब इसमें गालिब आ गया है मतलब अपने नाम को उपयोग करके शाइर ये बताने का प्रयास करता है कि ये ग़ज़ल किसकी है । तो वो शे’र जिसमें शाइर ने अपने नाम का प्रयोग किया हो और जो अंतिम शे’र हो उसे मकता कहा जाता है ।
मात्राएं :
दरअसल में ग़ज़ल ध्वनि का खेल है पूरा का पूरा ग़ज़ल का काम जो है वो वैज्ञानिक आधार पर चलता है । वैज्ञानिक आधार का मतलब ये है कि ग़ज़ल को ध्वनि पर रचा जाता है । और आपके मुंह से निकलने वाले उच्चारण पर ही सारा सब कुछ निर्भर रहता है । अगर हम हिंदी के छंदों की बात करें तो वहां पर मात्राओं का खेल है वहां पर उच्चारणों का उतना महत्व नहीं है जितना मात्राओं का है । पर ग़ज़ल तो केवल और केवल ध्वनि पर ही चलती है । आपने क्या उच्चारण किया उस पर ही निर्भर करता है कि मात्राएं क्या होगी । गज़ल में ही ऐसा होता है कि हम दीवाना भी कहते हैं और कभी दिवाना भी कहते हैं । हम दीवार भी कहते हैं और कभी दिवार भी कहते हैं । ये जो कुछ भी हो रहा है ये केवल इसलिये हो रहा है क्योंकि उच्चारण की सुविधा के कारण ये है । ध्वनि विज्ञान का अद्भुत उदाहरण है ग़ज़ल । यहाँ पर मात्राएँ आपके स्वर से निर्धारित होती हैं । हालाँकि हिन्दी छंद की तरह से यहां पर भी लघु और दीर्घ दो प्रकार की मात्राएं होती हैं पर यहां पर ये स्वतंत्रता होती है कि आप दो लघु को मिलाकर अपनी सुविधा से उसे एक दीर्घ के रूप में ले सकते हैं ।
रुक्न :
अगर पूरे शेर को पाजेब माना जाए तो उस पाजेब में लगे हुए छोटे छोटे घुंघरू रुक्न हैं इन रुक्नों से मिलकर ही शेर बनता है । अब रुक्न पर आने से पहले हम ये जानने का प्रयास करें के रुक्न पैदा कहां से हुआ । दरअस्ल में लघु या दीर्घ मात्राओं का एक निश्चित गुच्छा रुक्न कहलाता है । जैसे एक पुराना गीत है मुहब्ब्त की झूठी कहानी पे रोए इसको अगर देखा जाए तो इसमें तीन जगह विश्राम आ रहा है मुहब्ब्त—-की झूठी—-कहानी—–पे रोए । आप अब रुक-रुक कर के पढ़ें जहां पर मैंने डेश लगाऐं हैं वहां पर विश्राम देकर पढ़ें । आपको भी लगेगा कि हां ऐसा ही तो है विश्राम तो आ ही रहा है । ये जहां पर विश्राम आ रहा है वास्तव में वहां पर एक रुक्न पूरा हो रहा है । अब एक काम करें छोड़ दें मुहब्ब्त की झूठी कहानी पे रोए को और ये देखें ललाला—–ललाला—-ललाला——ललाला ।
अब एक काम करें बार बार नीचे की पंक्तियों को पढ़ें बार बार मुहब्ब्त—-की झूठी—-कहानी—–पे रोए ललाला—-ललाला—-ललाला—-ललाला बार बार पढ़तें रहें तब तक जब तक आपको ये न लगने लगे कि अरे दोनों में तो ग़जब का साम्य है । साम्य ये है कि दोनों का वजन एक ही है वजन वो क्या बला है । सब्र करिये आगे उसकी भी जानकारी आ रही है । तो रुक्न कुछ निश्चित मात्राओं का एक समूह है । और हम ये जान लें कि मात्राओं से मिलकर बनते हैं रुक्न, रुक्नों से मिलकर बनते हैं मिसरे, मिसरों से मिलकर बनते हैं शेर और शेरों से मिलकर बनती हैं ग़ज़ल । मतलब रुक्न ग़ज़ल की सबसे छोटी इकाई मानी जा सकती है । ऊपर क्या है ललाला—–ललाला—-ललाला——ललाला अब ये ललाला क्या है ये मात्राओं का एक तय गुच्छा है जिसमें122 का क्रम है एक लघु फिर दो दीर्घ मात्राएं आ रहीं हैं । ल:लघु-ला:दीर्घ-ला:दीर्घ ( मु:1, हब्:2, बत:2) बहर : रुक्नों का एक पूर्व निर्धारित विन्यास ही बहर होता है । पूर्व निर्धारित का मतलब जो कि पहले से ही तय है और आप उसमें कुछ भी परिवर्तन अपनी ओर से नहीं कर सकते हैं । जैसे ललाला—–ललाला—-ललाला——ललाला ये पहले से ही तय है और इसमें रुक्नों का विन्यास 122-122-122-122 है ये एक तय विन्यास है पूरी की पूरी ग़ज़ल इसी विन्यास पर चलेगी आप किसी शे’र में इसे बदल नहीं सकते हैं । ये जो तय विन्यास है ये ही बहर कहलाता है । अगर आपने किसी शे’र में विन्यास में फेर कर दिया तो आपका शेर बेबहर हो जाता है खारिज हो जाता है । अर्थात जान लें कि पूरी की पूरी ग़ज़ल उसी बहर पर चलेगी देखें उसी गाने का अंतरा न सोचा, न समझा, न देखा, न भाला बात वही चल 122-122-122-122 । हालंकि ये गीत है ग़ज़ल नहीं है पर ये बहर में है ।
वजन :
सबसे आवश्यक शै: है ये । वजन का मतलब तो वही है जो होता है भार । जैसे 122 का मतलब होता है एक लघु के बाद दो दीर्घ । अब ये हो गया वजन अगर किसी फल वाले से पूछेंगें तो कहेगा कि पांच किलो वज्न है । और ग़ज़ल वाले से पूछेंगें तो कहेगा कि ललाला वज्न है । तो ये जो हमारा ललाला है ये हमारा वजन है । और इस ललाला को अगर आपने कहीं पर लालाला या लालाल या लालला कर दिया तो मतलब ये है कि आपने डंडी मार दी रुक्न वजन से बाहर हो चुका है । मतलब ये कि पांच किलो होने से भी काम नहीं चलेगा पहले लघु है तो हर बार वो ही पहले रहे यहां पर जोड़ से काम नहीं चलता ।
No comments:
Post a Comment